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बुधवार, 25 दिसंबर 2013

आपदा के मानसिक व सामाजिक प्रभावों का होगा अध्ययन

देश की सर्वोच्च समाज वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद एक करोड़ रुपये से शुरू कराएगी परियोजनाएं
नवीन जोशी, नैनीताल। उत्तराखंड में विगत जून में आई भीषण आपदा में जन-धन के नुकसान की अलग-अलग स्तरों से हो रही भरपाई से इतर आपदा से प्रभावित मानव मन एवं समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाएगा। देश का सामाजिक विज्ञान क्षेत्र में अध्ययन कराने वाली शीर्ष संस्था भारतीय सामाजिक अनुसंधान एवं शैक्षिक परिषद (आईसीएसएसआर) इस क्षेत्र में करीब एक करोड़ रपए की लागत की परियोजनाएं शुरू करने जा रहा है। इन परियोजनाओं के लिए आईसीएसएसआर ने प्रस्ताव आमंत्रित किए थे, जिनका मूल्यांकन हो चुका है। प्रदेश में आई आपदा के बाद अनेक प्रभावितों के मानसिक संतुलन खोने की खबरें समाने आई हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है प्रभावितों के पुनर्वास में केवल नष्ट हुई जमीनें देना, घर बना देना या सड़क-बिजली-पानी जैसी ढांचागत सुविधाएं बहाल कर देना ही पर्याप्त नहीं होता। प्रभावित लोगों को अन्यत्र बसाने में उनके अपनी मूल मिट्टी से जुड़े सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों- परिवेश पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है, लिहाजा अपने प्रियजनों और मूल गांवों को खो चुके प्रभावितों के मानसिक पुनर्वास की भी जरूरत महसूस की जाती है। आईसीएसएसआर के निदेशक व पिथौरागढ़ जनपद के मूल निवासी डा. जीएस सौन ने बताया कि आपदा से प्रभावितों पर मानसिक व सामाजिक स्तर पर पड़े प्रभाव तथा उन्हें अब तक मिली आपदा राहत व मदद के प्रभावों का अध्ययन जैसे विषयों का न केवल एक बार वरन एक, दो एवं तीन वर्षो के अंतराल पर अध्ययन कराने के प्रस्ताव मांगे गए हैं। इन प्रस्तावों पर कुमाऊं व गढ़वाल विवि के साथ ही महाविद्यालयों एवं शोध संस्थानों के माध्यम से 15-20 लाख रपए की चार-पांच बड़ी परियोजनाएं कुछ दिनों के भीतर ही स्वीकृत होने की उम्मीद है। इससे प्रभावितों पर आपदा से पड़े सामाजिक प्रभावों का वैज्ञानिक तरीके से विस्तृत अध्ययन किया जाएगा।

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

'दास' परंपरा के कलाकारों का नहीं कोई सुधलेवा


नैनीताल (एसएनबी)। सदियों से प्रदेश की लोक संस्कृति को समाज की उलाहना के बावजूद सहेजे हुए 'दास' परंपरा के कलाकारों की राज्य बनने के बाद भी किसी ने सुध नहीं ली। राज्य सरकार के उनकी कला को संरक्षित करने के दावे भी ढपोल शंख ही साबित हुए। बावजूद वह अब भी इस परंपरा को निभाए जा रहे हैं, और आगे की पीढ़ी को भी इसे थमाने की कोशिश है, लेकिन सशंकित भी हैं कि ऐसा कर भी पाएंगे या नहीं। 
नगर के पाषाण देवी मंदिर में इन दिनों नवरात्र के मौके पर रोज दूरस्थ बागेश्वर जनपद के रीमा क्षेत्र के जारती गांव निवासी दास परंपरा के कलाकार अनीराम व उनके भाई रमीराम अपनी दूसरी पीढ़ी के बेटों सुभाष, हरीश व ह्यात के साथ जमे हुए हैं, और रोज सुबह तड़के से लेकर अलग- अलग समयों पर अपनी विशिष्ट पोषाक के साथ गले में बड़े घुंघरुओं का छल्ला डालकर विजयसार (ढोल, दमुवा, नगाड़ा व भौंकर के समन्वय) पर नौबत (सुबह चार बजे देवताओं के स्नान की पूजा के समय का विशिष्ट संगीत) तथा निराजन (देवताओं के भोग के समय का अलग संगीत) आदि बजाते हुए अपना योगदान दे रहे हैं। रमी राम बताते हैं, विजयसार के साथ देवताओं के आह्वान का यह कार्य उन्हें विरासत में मिला है। अपने गृह क्षेत्र स्थित मूल नारायण के मंदिर में यह उनकी रोज की दिनर्चया का हिस्सा है। लोक संस्कृति में बिना दासों के द्वारा संगीत का यह योगदान दिए बिना देवताओं की दैनिक पूजा संभव ही नहीं है। बचे समय में शादी-बारात में भी जाते हैं, लेकिन बीते दशकों में बैंड बाजे के आने से शादियों में पहाड़ी ढोल-दमुवा, नगाड़े, तुतरी व बीन बाजे के कलाकार इस पैतृक कार्य से बेरोजगार हो गए हैं। केवल नाकुरी पट्टी क्षेत्र में ही उन जैसे गिने-चुने कलाकार राज्य सरकार की किसी योजना की उन्हें जानकारी भी नहीं है। उनके पास प्रदेश के लोक देवता मूल नारायण, प्रदेश की प्रसिद्ध प्रेम कथा राजुला-मालूशाही , जागर, जुन्यार आदि का पारंपरिक ज्ञान है, लेकिन उसके संरक्षण की किसी योजना से भी वह अनजान हैं। बताते हैं कि वाद्य यंत्रों की मढ़ाई में ही हजारों रुपये खर्च होते हैं। परिवार चलाना बेहद मुश्किल हो रहा है। वहीं पाषाणदेवी मंदिर में नवाह ज्ञान यज्ञ करा रहे आचार्य भगवती प्रसाद जोशी का कहना है कि पहाड़ में गुरुओं (पंडितों) और दासों की किसी भी धार्मिक आयोजन में समान व बड़ी भूमिका रहती है। पंडित तो किसी प्रकार पंडिताई को जारी रखे हुए हैं, लेकिन दासों की कला संरक्षण के अभाव में विलुप्ति की कगार पर है। वह इस कला को संरक्षित करने के उद्देश्य से हर वर्ष इन्हें बुलाते हैं।